अतीत का बोझ /burden of the past / atit ka bojh- how to overcome it by OSHO Vani and Osho thoughts with LORD BUDDHA story



अतीत का बोझ/burden of the past





 

क बहुत ही आश्चर्यजनक(amazing) तथ्य दिखाई पड़ता है वो ये कि मनुष्य का पूरा व्यक्तित्व एक तनाव, एक खिंचाव और एक बोझ है। कौनसा बोझ है मनुष्य के चित्त पर? किस पत्थर के नीचे आदमी दबा है? सूरज की किरणों की तरफ देखें या वृक्ष के हरे पत्तों की तरफ या आकाश की तरफ, आंखें उठाएं कहीं कोई बोझ नही है सब तरफ निर्भार है, कहीं कोई तनाव नहीं है, मनुष्य के मन पर। सुना हैं मैंने एक तेज़ी से दौड़ती हुई ट्रेन के भीतर एक आदमी बैठा हुआ था जो भी उस आदमी के करीब से निकलता हैरानी से और गौर से उसे देखता उसने काम ही ऐसा कर रखा था वह अपना बिस्तर और अपनी पेटी अपने सिर पर रखे हुए था कोई भी उससे पूछता की क्या हुआ मित्र, वह कुछ स्वयं सेवक किस्म का आदमी था उसने कहा कि मैं अपना बोझ इस गाड़ी पर क्यों रखूं इसलिए अपने सिर पर रख लिया है लेकिन उसे ये नहीं मालूम की वो खुद गाड़ी पर सवार हैं और अपने सिर पर बोझ रखे हुए वो बोझ भी गाड़ी पर सवार है लेकिन जिस बोझ को वो नीचे रखकर आराम से बैठ सकता था उस बोझ को वो सिर पर रखें हुए है इस ख्याल से कि अपनी सेवा स्वयं करनी चाहिए। गाड़ी भाग रही है और उसको भी ले जा रहीं है और उसके समान को भी लेकिन वो अपने बोझ को अपने सिर पर रखे हुए है ऐसे ही हमारा सारा जीवन चल रहा है, सारा जीवन चलता रहा हैं और सारा जीवन चलता रहेगा लेकिन हम सब अपने अपने बोझ को अपने-पने सिर पर रखे हुए है जिसे हम नीचे उतार के रख सकते थे उसे हमने सिर पर रखा हुआ हैं और हम सबका भी वही ख्याल है जो उस भागती हुई गाड़ी में बैठे हुए आदमी का है अपना बोझ अगर मैं नही रखूंगा तो कौन रखेगा? लेकिन उसका बोझ प्रत्येक को दिखाई पड़ा जो वो अपने सिर पर लिए हुए हैं क्योंकि वो दिखने वाला बोझ था और हम जो बोझ लिए हुए है वो दिखने वाला बोझ नही। ऐसे बोझ जो दिखाई पड़ते है वो बहुत खतरनाक नही, उन्हें उतार के नीचे आसानी से रखा जा सकता है लेकिन ऐसे बोझ जो दिखाई नही पड़ते वे भी हम रखे हुए है और चूंकि वे दिखाई नही पड़ते दूसरो को भीं और हमें भी नही इसलिए हम उन्हे जीवनभर बढ़ाते ही चले जाते है वे कभी कम नहीं होते। बच्चें और बूढ़े में अगर कोई अंतर है तो केवल एक कि बच्चों के ऊपर अभी कोई बोझ नहीं और बूढ़े जीवनभर का बोझ इकठ्ठा कर लेते हैं। बुढ़ापे का मतलब ही है कि इतने बोझ से दब जाना कि जीना असंभव हो जाए शरीर तो बूढ़ा होगा लेकिन मन अगर निरबोझ हो तो आत्मा कभी भी बूढ़ी नही होती।

                     लेकिन बहुत अनजान बोझ है जो हम अपने सिर पर लिए ै और उन बोझों को लिए हुए अगर सोचते है की शांत हो जायेंगे असंभव है उन बोझों को आपके ऊपर किसी ने रखा नही है आपको पता भी नही आप ही रखते चले गए और रखते चले जा रहे है जो बोझ इतने ज्यादा हो जायेंगे कि हम उसमे दब जायेंगे बोझिल हो जायेंगे।

इन बोझों को थोड़ा समझ लेना जरूरी है क्योंकि उस गाड़ी में जो आदमी सिर पर बोझ लिए बैठा है अगर उसे ये पता चल जाए कि नासमझी कर रहा है और उसे पता चल जाए कि ये निहायत पागलपन (extreme craziness) ै उसे सिर से बोझा उतारने में देर नहीं लगेगी वह तुरंत नीचे उतार देगा। ऐसे ही चित्त (mind) के बोझ अगर हमारी समझ में आ जाए तो उन्हें उतार के नीचे रख देने में जरा भी कठिनाई नहीं लेकिन हमे पता ही नही कि हम किस तरह के बोझ लिए हुए है वो बीत चुका है अब वह कहीं भी नही सिर्फ हमारी स्मृति (memory) को छोड़कर अब वो कहीं खोजें से नही मिलेगा लेकिन हमारी स्मृति में संग्रहित (collected) है। वह सारा पत्थर की तरह हमारे सिर पर बैठा हुआ है, कल हुआ था वो हो चुका जैसे पानी पर बनी हुई रेखाएं (lines) तो बन भी नही पाती और मिट जाती है वैसे ही इस जीवन की सतह (surface) पर बनी हुई रेखाएं जो बन भी नही पाती और मिट जाती है। इन वृक्षों को, सूरज को और आसमान को कुछ नही पता जो कल हुआ था सिर्फ आदमी को ही पता है आदमी के लिए जो कल हुआ था वह जकड़ (hold) के बैठ गया है कल उसे किसी ने सम्मान (respect) किया था, कल उसे किसी ने गाली (abuse) दी थी, कल उसे किसी ने प्रेम (love) किया था, कल उसका किसी ने अपमान (insult) किया था और बीते हुऐ सारे कल अंतहीन (endless) है वो कुछेक को अंतहीन जन्मों की कथाएं स्मरण (memory) में भीतर बैठी हैं इस तरह अतीत (past) का बोझ अतीत का पत्थर बनता चला गया वह  ही हमारे सिर पर है उसके नीचे हम दबे हुए हैं इसलिए निरभार नही हो पाते। ये समझ लेना जरूरी है की जो बीत गया वो बीत गया अब वो कहीं भी नही है तो उसे मैं क्यूं दोहराऊ।

एक सुबह एक आदमी भगवान बुद्ध के पास आकर बहुत क्रोधित हुआ, बहुत गालियां दी फिर बुद्ध के लिए क्रोध में आकर उसने बुद्ध के ऊपर थूक (spit)  दिया बुद्ध ने चादर से उस थूक को पोंछ लिया तथा व्यक्ति से कहा और कुछ कहना है मित्र हालंकि हमारी नियति में बुद्ध जैसे के ऊपर थूकना का बहुत मन होता है क्योंकि बुद्ध तो किसी का अपमान नही करते है लेकिन उनके होने मात्र से ही बहुत लोगों को पीड़ा और अपमान का कारण बन जाता है क्योंकि बुद्ध जैसे व्यक्ति का खड़ा होना ही हमारे छोटे होने का सबूत हो जाता हैं बुद्ध जैसे व्यक्ति का प्रकाशित होना ही हमें अंधकार दिखने लगता है बुद्ध जैसे लोगो के भीतर बहती करूणा हमारे भीतर के अहंकार और क्रोध को उजागर कर देती है बुद्ध का व्यक्तित्व हमारे व्यक्तित्व की हीनता को जाहिर करने लगता है यह सब कुछ स्वाभाविक (natural) है लेकिन बुद्ध ने उस थूक को पोंछ लिया जैसे कुछ भी न हुआ हो साथ ही बुद्ध ने पूछा और कुछ कहना है, पास मे बैठा हुआ शिष्य बहुत क्रोधित हुआ और बुद्ध से कहा क्यों कहते हो और कुछ कहना है ये आदमी थूक रहा है हम आपकी वजह से चुप है अन्यथा हमारे प्राणों में आग लग गई है की ये क्या किया है इस आदमी ने। बुद्ध ने कहा जहां तक मैं समझता हूं इस आदमी के मन मे इतना क्रोध है कि शब्दों में कहने में असमर्थ है इसलिए थूक कर कहता हैं थूकना भीं एक भाषा है, एक ढंग है और कभी हम न कह पाते तो कुछ शब्द असमर्थ हो जाते हो तो फिर इस तरह से कहते है जैसे किसी का प्रेम बहुत बढ़ जाता है तो गले से लगा लेता हैं वैसे तो गले से लगाने से कोई मतलब नहीं बनता लेकिन प्रेम के लिए शब्द नही मिलते इसलिए ऐसा करता है, और कोई क्रोध से भर है तो सिर पर चोट कर देता हैं शब्द नही मिलते और कोई आदर से भर जाता है तो पैरो में गिर जाता है शब्द नही मिलते। बुद्ध ने कहा शब्द नही खोज पा रहा है वह आदमी उसकी भाषा कमजोर है इसलिए मैंने पूछा और कुछ कहना है मित्र। वो आदमी वापस लौट गया और कुछ कह न सका रात भर सो नहीं सका,  दूसरे दिन क्षमा मांगने आया और बुद्ध के पैरो को पकड़कर आंसू गिराकर बोला कि मुझे क्षमा कर दें। बुद्ध ने फिर शिष्य से कहा देखते हो यह आदमी अब भी कुछ कहना चाह रहा है और शब्द नही मिल रहें है तो आंखों से आंसू गिराता है और पैर पकड़ता है आदमी की भाषा बहुत कमज़ोर होती है और बुद्ध ने आदमी से कहा मित्र किस बात की क्षमा मांगते हो मुझसे मैं दूसरा आदमी हूं कल तुम सुबह जिस आदमी के पास आए थे अब वह आदमी नही है वृक्ष में पत्ते वही नही हैं, न आकाश में बादल वही है, न सूरज की किरणे वही हैं सब तो बदल गया फिर किससे क्षमा मांगते हो लेकिन पागल हो तुम, तुम नही बदल पाए तुम वहीं खड़े हो इसलिए मैं कैसे क्षमा करूं जो मैं कल था वो मैं अब नही हूं।

                            सिर्फ मरी हुई चीजें वही होती है जो कल थीं जिंदा चीजें रोज़ बदल जाती है। जीवन का मतलब है बदल जाना। सिर्फ मरा हुआ वही होता है जो असल में अतीत में होता हैं उसी में जीता है मरे हुए का कोई वर्तमान नही होता। सिर्फ अतीत नही बदलता वर्तमान प्रतिक्षण (per second) बदलता चला जाता हैं जो बदलता हैं उसका नाम वर्तमान है जो ठहरता ही नही बदलता ही चला जाता है उसी का नाम जीवन है। लेकिन स्मृति बदलती नही ठहर जाती है, हम जीवन है और हमारे सिर पर स्मृति का बोझ है जो नही बदलती। जिंदगी एक फूल है तथा स्मृति उसे पत्थर की भांति नीचे दबाएं हुए हैं। सोचो एक फूल पत्थर के नीचे दब जाए तो फूल के कैसे प्राण हो जाएंगे वैसे ही आदमी की चेतना (consciousness) स्मृति के पत्थर के नीचे दबके परेशान, पीड़ित और तनाव से भर जाती है जैसे आदमी कभी मंत्री रहा होगा तो भी अपने को भूतपूर्व मंत्री (ex-minister)  बताता है ठीक है कभी मंत्री थे लेकिन बात बह गई, गंगा का पानी बह गया जो था वो अब नही है।

जिंदगी एक बहाव है (life is a flow) लेकिन उस बहाव ने जो भी जाना(know) है, उस बहाव पर जो भी अंकन(notation) हुए, उस बहाव ने जो भी देखा वो सब स्मृति इकट्ठा करता चला गया। जीवन की धारा है आगे की तरफ स्मृति की पकड़ है पीछे की तरफ, स्मृति रूक जाती है अतीत पर। जीवन भागता है आगे और आगे अनजान और अज्ञात में और स्मृति रुकती है ज्ञात पर। स्मृति है known जबकि जीवन है unknown और ज्ञात और अज्ञात के बीच जो खिंचाव है वो ही मनुष्य का तनाव(tension) है वो तनाव जब तक न उतरे तब तक जीवन के द्वार में हम प्रवेश नही पा सकते। ये मत पूछो कि वो हम कैसे उतारे समझ लेना जरूरी है और समझ लिया जाए ठीक से तो उतर जाता है क्योंकि कोई देखने वाला बोझ थोड़े ही है जिसे सिर से उतारना है वो बस समझने की बात है वो बस दिखाई पड़ जाए बस वहीं खत्म हो जाता हैं ैं ये नहीं कह रहा कि आप भूल जाए कि आप कहां से आए हैं? और कहां लौटना है? ये सब कामचलाऊ(tentative) स्मृति है इसका कोई बोझ नही, स्मृतियां दूसरी है मानसिक (psychological) अगर कल आपको किसी ने कुछ गलत बोला तो क्या आप आज बिना उस बात को बीच में लाएं बात करेंगे? क्या ये संभव होगा? अगर ये हो सकता हैं तो आप एक जिंदा(alive) आदमी है अगर ये नही हो सकता है तो बहुत कठिनाई है, अगर ये बातें ठीक से समझ आ जाए तो कही कोई विरोध नहीं मालूम पड़ेगा।

    यह तो ऐसी बात मालूम पड़ती है जैसे एक ही बैलगाड़ी में हमने दोनो तरफ बैल बांध दिए हो और वो दोनो तरफ बैल भागे चले जा रहे है स्मृति के बैल पीछे की तरफ जीवन की धारा के बैल आगे की तरफ। हम तकलीफ़ में पड़ गए हैं तथा पीछे के बैल मजबूत है क्योंकि जीवनभर का बल उन्हें मिला है वो जो अतीत के बैल मजबूत है क्योंकि जीवनभर की ताकत उन्हें मिली है मुर्दा(dead) है लेकिन मजबूत है पत्थर है लेकिन वजनी है और आगे की जीवन धारा बहुत कोमल(soft) है अभी होने को है। ऐसे ही भविष्य की जीवनधारा बहुत कोमल, बहुत नाज़ुक(delicate) है। परंतु जब जिंदगी रूक जाती है, ठहर जाती है फिर वो धारा न रहकर एक तालाब बन जाती है फिर हम सड़ते हैं, बोझ से मरते है। इसलिए अतीत का बोझ एक भारी दीवार की तरह खड़े होकर आदमी को जीवनधारा से तोड़ रहा है इसलिए यह समझ लेना जरूरी है जो हो चुका सो हो चुका उसे में क्यों दोहराऊ(repeat) उसे में विदा कर दूं। 

चित्त एक दर्पण(mirror) है और चित्त एक दर्पण हो जाएं बस सब हो गया लेकिन चित्त पर तो हम धूल इकट्ठी कर लेते है अतीत के बोझ जैसे। इसलिए हमे दर्पण की भांति होना चाहिए असंग की भांति जिससे चीजें बने और मिट जाएं। यहां असंग का मतलब unattached नही असंग का अर्थ पूरी तरह जुड़े हुए और फिर भी नही जुड़े हुए। जैसे प्रेम भी करें तो पूरा (total) करें अधूरा न रह जाएं नही तो लौट लौट के पीछे की याद आयेगी। इसलिए जो भी करें पूरा कर लें और पार हो जाएं क्योंकि जिंदगी कहीं नही रुकती सब चीज़ें पार हो जाती हैं क्योंकि विदा होते ही मन खाली हो जायेगा और दर्पण बन जाएगा आपका मन।

   इसलिए पहला बोझ है अतीत का उसे जाने दें और दूसरा बोझ है इस बात का कि जैसे मैं ही सारी दुनिया चला रहा हूं हर आदमी अपने को केंद्र (centre) माने हुए है कि सारी दुनिया उसी के इर्द गिर्द घूम रही है परंतु हममे से कोई भी दुनिया को नही चला रहा है दुनिया चल रही और उसमें हम चल रहें हैं।




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